New poem on freedom|| best poem||

         

           ||था वो एक पिंजरे में बंद पंछी||

खुले आसमान में उठ रहा था पंछी
इस डाल से उस डाल जाना न रुकता था उसका|
न जाने क्यों किसी को उसकी आजा़दी पसंद नहीं आयी, 
किसी को उसकी मुस्कराहट न भायी
था वो एक पिंजरे में बंद पंछी ||



काफ़ी खुश होता है इंसान आज़ादी से
आज़ादी के लिए लडाई भी लड़ता है|
न जाने क्यों फिर बेज़ुबान पंछी को, 
पिंजरे में कैद रखता है
था वो एक पिंजरे में बंद पंछी||




किसी बेजुबान को कैद रखना
अपना हक न समझना ए दोस्त! 
आज तुम्हारा वक्त है, कल भी तुम्हारा ही वक्त होगा
ऐसा न होता रोज़|
था वो एक पिंजरे में बंद पंछी||



आज़ादी के दो दिन देखे होंगे उसने
लेकिन पिंजरे में कैद, 
बरसों रह गया वो|
था वो एक पिंजरे में बंद पंछी||








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